Our Culture

हम और हमारी संस्कृति

उत्तराखण्ड का इतिहास पौराणिक है, उत्तराखण्ड का शाब्दिक अर्थ उत्तरी भू भाग का रूपान्तर है, इस नाम का उल्लेख प्रारम्भिक हिन्दू ग्रन्थों में मिलता है, जहाँ पर केदारखण्ड (वर्तमान गढ़वाल) और मानसखण्ड (वर्तमान कुमांऊँ) के रूप में इसका उल्लेख है,
उत्तराखण्ड "देवभूमि" के नाम से जाना जाता है क्योंकि यह समग्र क्षेत्र धर्ममय और दैवशक्तियों की क्रीड़ाभूमि तथा हिन्दू धर्म के उद्भव और महिमाओंं की सारगर्भित कुंजी व रहस्यमय है।

गढवाल मंडल में ७ जिले हैं। १ पौड़ी, २ टिहरी, ३ चमौली, ४ उतरकाशी, ५ रुद्रप्रयाग, ६ हरिद्वार, और ७ देहरादून हैं।
कुमाँऊ मंडल में ६ जिले हैं १ आल्मौडा, २ पिथौरागढ, ३ नैनीताल, ४ बागेश्वर, ५ ऊधामसिंह नगर और ६ चम्पावत हैं।

उत्तराखंड राज्य लगभग 55'000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है, यह वर्म पूत्र हिमालय जी भी विराजमान हैं बर्फ से ढके पर्वत पहाड़ों चोटियों, विशाल हिमनद, कैलाश पर्वत शक्तिशाली नदियों का उदग्म संगम है, (बासुकी,मंदाकिनी) सोन प्रयाग। (धौली गंगा, अलकलंदा) विष्णु प्रयाग। (पिण्डर नदी, अलकनंदा) कर्ण प्रयाग। (नंदाकिनी, अलकनंदा) नंद प्रयाग।(अलकनंदा, भागीरथी) देव प्रयाग एवं गंगा जी और विविध वनस्पतियों और जीवों के साथ फैला हुआ है। 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तराखंड की कुल जनसंख्या लगभग 100,86,292 थी, जिनमें से गढ़वाल के ७ जिलों में रहने वाले लोगों की कुल जनसंख्या 58,57,294 के लगभग थी, कल्पना की जायें तो उत्तराखंड के हर एक जिले की आपनी एक अलग ही महत्वपूर्ण पहचान है, इसमें पौड़ी गढ़वाल और अल्मौडा के सीमावर्ती क्षेत्र में स्थित सौन्दर्य से परिपूर्ण शक्तिपीठ देवी भगवती महाकाली मंन्दिर विराजमान है, यहां हर साल हजारों श्रद्धालुओं देश विदेशों से देवी भगवती महाकाली के दरवार में मन्तन माँगने आते हैं, जिसके फलस्वरूप जब श्रद्धालुओं की मनोकामनाएँ पूरी होती हैं तब श्रद्धालु पूजा प्रस्ठान हेतु देवी भगवती महाकाली के शरण में आते हैं,

पौराणिक काल से ही जो भी श्रद्धालु देवी भगवती महाकालिंका के शरण में आते हैं देवी भगवती अपनी छत्र छाया से उनकी सभी मनोकामनाएँ पूरी करती हैं, देवी भगवती महाकालिंका गढवाल और कुमाँऊ की रक्षा करती है इसलिए देवी भगवती को चौमुखी माता भी कहा जाता है यहीं शक्तिपीठ महाकाली मंन्दिर परिसर में बाडियारी वंश के चौदह गांवों द्वारा प्राचीन परम्पाराओं के अनुसार भगवती महाकालिंका जात्रा निर्वहन किया जाता है

यहाँ कि बोली और भाषा

पौड़ी गढ़वाल विकास खंड बीरोंखाल पट्टी खाटली में गैडीगाड और कुमाँऊ अल्मोड़ा विकास खंड स्याल्दै में लखोरा का सीमावर्ती क्षेत्र होने के कारण यहाँ मुख्या रूप से स्थानीय गढ़वाली और कुमाँऊनी बोली भाषा का प्रचलन हैं, साथ ही हिन्दी भाषा का प्रयोग भी किया जाता है यहां के लोग बहुत ही खुश मिजाज हर समय का आनंद लेना, प्रसन्न होना और ईश्वर भयभीत के साथ बड़े दिल और धार्मिक लोग हैं, उनके जीवन के हर पहलू में धर्म, धार्मिक अस्थित्वा का बहुत अधिक प्रभाव है यहां समाज में पुरुषों और महिलाओं दोनों समान रूप से अपने व्यवसाय में काम करते हैं यहां पौराणिक रीति रिवाजों के साथ संस्कृति और धार्मिक स्थलों में पूजा पद्धति का पालन भली भाँति करते आ रहे हैं और इन्ह संस्कृति कार्यों के पहलुओं को आज भी समाज में विशेष रूप से दर्शाया जाता है यहां जाति व्यवस्था का व्यापक रूप से अभ्यास किया जा सकता है प्रथम पण्डित, द्वितीय राजपूत, और तृतीय हरिजन औजी हैं अन्तर वर्ग और अन्तर जाती विवाह यहां कि समुदाय में अच्छी तरह से स्वीकार नहीं किए जाता हैं यहां के लोग हिन्दू धर्म का पालन करते हैं और शिवरात्रि, मक्रनी सक्रांत, उत्ररेणी सक्रांत, बसंत पंचमी, रक्षा बंधन, दशहरा, दिवाली (बग्वाल), विजयदाश्मी जैसे सभी हिंदू त्योहारों को बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है, यहां का लोक संगीत चौपाती, चौफुला, झूमिला, बसंती और मंगल गीत हैं, यहां का लोक नृत्य रूप लैंगवीर नृत्य, बरदा नती और पांडव नृत्य हैं, ढोल, दमाऊ, तुरी, रांसिंघा, ढोलकी, थाली, भँकोरा, ढौर उत्सव के अवसरों और धार्मिक समारोहों के दौरान उपयोग किए जाने वाले लोकप्रिय संगीत वाद्ययंत्र हैं।

यहाँ का खान पान

आधुनिक समय में तो यहां के खान पान में बहुत बदलाव आ गया है क्योंकि लोग प्रदेशो का रूख कर रहे है लेकिन सन् उन्नीस सौ के दशक मे लोग यहाँ खाने मे झंगोरा, कोद मंडुवा की रोटी, भट्ट, की भट्वाणि, गैथ, गंजडू, छन्च्या, घारू, सब्जी च्याणा, घन्या, कंडली, घंन्घूणा, च्यूँ, ईत्यादि कंदमूल जैसे प्राकृतिक और जैविक पदार्थों का भोजन करते थे और शरीर पर अपने घर में हाथ से बनाया गए वस्त्रों (त्योंख) का ही उपयोग करते थे, क्योंकि उस समय किसी अन्य प्रकार के वस्त्र उपलब्ध होते नही थे पूरा परिवार साल मे छ: महीने घर मे एकसाथ रहते और छ: महीने आदमी लोग खेतों मे गाय,भेड, बकरियों, के साथ एक जगह से दूसरी जगह बदलते रहते थे जिसको (गुव्वाठ) के नाम से भी जानते हैं यहाँ के त्यौहार इसलिए भी प्रचलित हैं कि त्यौहारों मे विशेष तरह का और स्वादिष्ट खान पान का आयोजन किया जाता था जिसमे कि कुछ मीठा और स्वादिष्ट भोज आपस मे खाया जाता था और तद पश्चात मिलकर विशेष नृत्य (ओ दरी हिमाला दरी ताछुमा ताछुम) जैसे (झोड) भी किया जाता था।

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